गुरुवार, 30 अगस्त 2018

उलझन

बहुत दिन हुए हम जिए ही नहीं है
आज ज़िंदगी बहुत याद आरही है....

पुरानी किताबों,खतों की मानिंद
पड़ी किसी कोने में धूल खा रही है

मुद्दतें हुयी अश्क़ अब बहते नहीं हैं
झील आँखों की यूँही लहरा रही है

लफ़्ज़ों पे जैसे हैं ख़ामोशी के पहरे
हर एक आह ज्यूँ भीतर चिल्ला रही है

दिल धड़का नहीं एक अरसे से लेकिन
फिर भी धड़कनों की आवाज आरही है..

परतें सी पड़ गयी कई, दम घुटने लगा है
जाने कैसे ये साँस फिर भी आ जा रही है.

सासों की सरगम होती जाती है मद्धम
ज़िंदगी फिर ये नया सा गीत क्यूँ गा रही है(आशा)


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