बुधवार, 15 सितंबर 2010

दूब

सुनो मै दूब हूँ,हरी भरी
धरती की गोद में,सुरक्षित
तुम रोज़ मुझे रोंदते हो
अस्तित्व मेरा मिटाने
 को जाने कितनी बार
जड़ मेरी खोदते हो
पर मै फिर उग आती हूँ
तुम क्यूँ नहीं समझते
पेड़ों  को काटना आसान
दूब को मिटाना नामुमकिन
तुम जितना मिटाओगे
मै फिर से  उग आउंगी
नयी आभा,नया रूप लिए
सहने को तुम्हारी नफरत
क्यूंकि मै दूब हूँ हरी भरी
धरती की गोद में सुरक्षित
अभिमान नहीं मुझ में तनिक भी
सब के सामने झुक जाती हूँ
पर अपने मन की व्यथा
कहाँ किसी को बताती हूँ
चुप रहना, सब कुछ सहना
नियति मेरी, स्वाभाव मेरा
लेकिन फिर भी सुनो नादाँ
सह नहीं पाओगे अभाव मेरा
मै तपस्विनी, तप मेरा जीवन
परोपकार से ही खुश रहती हूँ
जितना चाहे काटो छांटो मुझको
कुछ कहाँ किसी को कहती हूँ
पर सुनो जितना भी काटोगे
उतनी तेजी से उग आउंगी
तुम लाख करो जतन मिटाने का
छोड़ कभी ना जाउंगी
क्यूंकि मै दूब हूँ हरी भरी
धरती की गोद में सुरक्षित
धरती मेरी माँ जैसी
हर सुख दुःख की साथी है
सब रोंद गए और छोड़ दिया
पर माँ क्या छोड़ के जाती है?
तन से मन से हम जुड़े हुए
तुम कैसे मुझे मिटाओगे
प्रयत्न तुम्हारे सब निष्फल
हर और मुझे ही पाओगे
क्यूंकि मै दूब हूँ हरी भरी
धरती की गोद में सुरक्षित.......

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