सिंघासन पर बैठी सीता
सोच रही थी ध्यान लगा
मन शांत सलिल सा शीतल
हर सांस मेरी कितनी निश्छल
हर द्वन्द छोड़ आई वन में
कोई दुविधा अब नहीं मन में
मेरी सारी तपश्चर्या का
कितना अद्भुद फल आया है
राम मिले,जीवन बदला,
ईश्वर को प्रियतम पाया है।
जीवन की अनगढ़ राहों में
थाम पिया का हाथ चली
कितनी भयावह रही नियति,
स्वधर्म से मै कभी न डिगी।
राम रहे हर पल मन में
पतिव्रत धर्म निभाया है..
उनका अनुपम रूप सदा
बन प्राण मुझमे समाया है..
यह देख हंसी क्रूर नियति
सीता तू भूमि की बेटी
बन रानी करले राज अभी
छूटेंगे तख्तो-ताज सभी
अग्नि-परीक्षा दे कर भी
अतीत न तेरा जल पाया है
नगर जनों को सीता का
चरित्र समझ नहीं आया है।
राम तुम भी बस पुरुष रहे
सीता ने कितने कष्ट सहे
रखने को पति की मर्यादा
वन का हर कष्ट उठाया है
हंस कर सही सारी विपदाएं
कब तुमको दोष लगाया है..?
तुम लोक-लाज के मारे
राजा हो,या पति बेचारे
मर्यादा-पुरुषोतम हो कर भी
पति की मर्यादा से हारे ,
निर्दोष सिया को वन भेजा,
बोलो कौन सा धर्म निभाया है,
जिसने जीवन तुमको माना
तुमको ही ईश्वर जाना,
त्यागा उसको किस कारन
क्यूँ मिथ्या आरोप लगाया है....!!!