गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

यूँही आज कल

यूँही आज कल पता नहीं कहाँ हूँ खोई सी
अलसायी सी जिंदगी उबासी ले रही है ।
क्यों उँगलियाँ इतनी अशक्त लगने लगी हैं
कलम भी उठाना भारी  हो गया आज कल ।
सोचों पर भी पड़े हैं ताले, सन्नाटे गूंज रहे है
किसी अनजान सी राह पर डगमगाते कदम ।
दिमाग में बज रहा कोई अधूरा गीत बेआवाज़
धुंध सी छायी हैचारों ओर, उलझा सा है  मन । 
धुंधलायी सी नज़रें गुमनाम ख़ामोशी लबों पर
यूँ के जैसे मदहोश दीवानगी के आगोश में गुम
कोई मुसाफिर भटकता फिर रहा हो वीराने में ।
मन की अँधेरी गुफा में गुर्राते हैं अनगढ़ ख्याल
और भागती  फिर रही हूँ कान में उंगली दिये।
ऐसा क्यों है मत पूछना, मुझे खुद नहीं पता ।
तुम समझ पाओ तो मुझको भी बताना प्लीज। … आशा


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