आज सुबह यूँही तकिये को देखा
सलवटे हटाते हुए उसको सहलाया
और सोचा,कितना अपना है ये
मेरे हर सुख -दुःख का मौन सांझी
बिना कोई सवाल जवाब किए
जैसे भी रखती हूँ रहता है
आंसू हो मेरे या हंसी सब
जज्बातों को बाँट लेता है
ख़ुशी में इसे जोर से भींच लेती हूँ
गुस्से में जोर से इसको ही पटक देती हूँ
दुःख में छुपा के मुह इसको भिगो देती हूँ
कभी शर्मा के इसके ही दामन में सिमट जाती हूँ
पर कभी इसने कुछ नहीं कहा
चाहे जो भी किया मैंने इसका
सब चुपचाप मौन हो सहा
प्यार से सहलाया तो भी नहीं ये इतराया
पटक दिया जब जोर से ये नहीं गुस्साया
कितना सहा इसने,लेकिन अहसान नहीं दिखाया
सोच रही हूँ काश मै भी तकिया बन पाती
बाँट पाती किसी के गम, आंसू,खुशियाँ
और फिर भी खुद पे नहीं इतराती
लेकिन क्या ये मुमकिन है?