गंगा तुम पावन और पवित्र,
पर मानव का स्वभाव विचित्र,
तुम आई धरती पर धोने पाप
पर मिला तुम्हे कैसा संताप
मनुज ने तुम्हे भी मैला कर दिया,
अपना सारा कलुष भीतर तुम्हारे भर दिया
गंगा तुम कितनी धैर्यवान
पर मानव है बड़ा शैतान
परीक्षा तुम्हारे धैर्य की
पग पग पर लेता आया
बांध के तुम को बंधन में
देखो विजय पे अपनी हर्षाया…
गंगा तुम कितनी निर्मल
अन्न धन से भर दी धरती
मानव के स्वार्थ अगिनत है
मैले से तेरी गोद भर दी
तुम ने दिया आश्रय सबको
जो शरण तेरी आये निसहाय,
तुम सहनशक्ति की सीमा हो
हो मौन सह रही सब अन्याय
गंगा तुम जीवन देती हो
बदले में कुछ नहीं लेती हो
पर मानव के स्वार्थ अथाह
जाने क्या पाने की चाह
व्यर्थ भटकता रहता है
तुम क्रोध ना करना है धैर्यशील
आखिर वो तुम को माँ कहता है..