जाने कितने ही युगों से
कालकूट हंस कर पी रही हूँ,
सती नहीं,जो खुद को मिटा दूँ
विष भी मिला, मिले विषधर भी
पर नीलकंठ का ना मान मिला,
बिन जाने, बिन पूछे मुझको
बलिदानों का सोपान मिला।
फटी हुई मन की चादर को
प्रेम के धागे से सी रही हूँ,
अश्रुओं को अमृत बना
अंजुली भर पी रही हूँ।
जाने कितने भस्मासूरों को
अनजाने ही वरदान दिए,
जाने कितने स्वर्ण महल
कृतघ्नों को यूँ ही दान दिए।
बैठ कर जलती चिता पर
आग हंस कर पी रही हूँ
शव नहीं हूँ, मैं शिवा हूँ
विष अहिर्निश पी रही हूँ।
निर्द्वंद्व, निर्भय निर्लिप्त हो
मैं धरा पर फिर रही हूँ
शांत शाश्वत स्नेह निर्मित
अपनी ही जटा में घिर रही हूँ
तांडव मेरा है प्रलयंकारी
भस्म कर दे सृष्टि सारी,किंतु,
क्रोध मेरा परिमेय कब था?
विनाश मेरा धेय कब था?
मैं धरा को थाम कर
सृष्टा बन चल रही हूँ।
मृदा,अग्नि,जल,वायु,गगन
पंचतत्व में मैं ढल रही हूँ ।
जाने कितने ही युगों से
कालकूट हंस कर पी रही हूँ,
सती नहीं,जो खुद को मिटा दूँ
मैं शिव बन कर जी रही हूँ…(आशा)
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