बुधवार, 5 सितंबर 2012

तेरी याद..........

अक्सर शाम ढले अपने आँगन में
जलाती हूँ एक दिया अरमानो का
सुबह होते होते खुद ही बुझा देती हूँ
चाँद के साथ उठती है एक हसरत जो
देके थपकी उसे अल-सुबह  सुला देती हूँ .....
ख्वाब अब नहीं आते बुलाने से भी
कितने बहानो से तेरी याद बुला लेती हूँ
नींद आँखों से छुपती फिरती है जब
तेरी तस्वीर को सिरहाना बना लेती हूँ

सोमवार, 3 सितंबर 2012

मोहब्बत की बीमारी

तुम भूल गये मुझको लेकिन,
अब भी बहुत याद आते हो।
जब भी तन्हा होता है मन
तुम बन के ख्याल मुस्कुराते हो
हरेक बात होती है शुरू तुमसे,
तुम्ही पे आके ठहरती है .
मेरी साँसों में अब तक
तेरी साँसे महकती हैं।
धड़कनों में मेरी बजती हैं
अब भी धड़कने तेरी .......
मेरी नींदे अभी तक भी
तेरे काँधे को तरसती हैं।
भुलाना लाख चाहा तुझे
तू और याद आया ........
काटे नहीं कटता हरजाई
इक-इक दिन सदियों पे भारी है।
सजदा किया तुझको ही दिलने
जाने कैसी दीवानगी तारी है।
तेरी चाहत में खुद को भूल बैठे 
लोग कहते हैं ये मोहब्बत की बीमारी है।   

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

निर्दोष सिया

सिंघासन पर बैठी सीता
सोच रही थी ध्यान लगा
मन शांत सलिल सा शीतल
हर सांस मेरी कितनी निश्छल
हर द्वन्द छोड़ आई वन में
कोई दुविधा अब नहीं मन में 
मेरी सारी तपश्चर्या का
कितना अद्भुद फल आया है
राम मिले,जीवन बदला,
ईश्वर को प्रियतम पाया है।

जीवन की अनगढ़ राहों में
थाम पिया का हाथ चली
कितनी भयावह रही नियति,
स्वधर्म से मै कभी न डिगी।
राम रहे हर पल मन में
पतिव्रत  धर्म निभाया है..
उनका अनुपम रूप सदा
बन प्राण मुझमे समाया है..

यह देख हंसी क्रूर नियति
सीता तू भूमि की बेटी
बन रानी करले राज अभी
छूटेंगे तख्तो-ताज सभी
अग्नि-परीक्षा दे कर भी
अतीत न तेरा जल पाया है
नगर जनों को सीता का 
चरित्र समझ नहीं आया है।

राम तुम भी बस पुरुष रहे
सीता ने कितने कष्ट सहे
रखने को पति की मर्यादा
वन का हर कष्ट उठाया है
हंस कर सही सारी विपदाएं 
कब तुमको दोष लगाया है..?

तुम लोक-लाज के मारे 
राजा हो,या पति बेचारे
मर्यादा-पुरुषोतम हो कर भी
पति की मर्यादा से हारे , 
निर्दोष सिया को वन भेजा,
बोलो कौन सा धर्म निभाया है,
जिसने जीवन तुमको माना
तुमको ही ईश्वर जाना,
त्यागा उसको किस कारन 
क्यूँ मिथ्या आरोप लगाया है....!!!




सोमवार, 30 जनवरी 2012

सरहदें.......




सोचों की सरहदें होती तो कैसा होता....
कैसे उड़ती उन्मुक्त हो कल्पनाएँ
बन्धनों में कैसे फूटते गीत सतरंगी
मन के आकाश का सुनहला इंद्रधनुष
टूट कर गिर ना जाता....

कुम्हला कर रह जाती मन की कमलिनी
इच्छाओं के भंवर कहाँ गुंजारते
स्वप्निल आँखे क्यूँकर देख पाती
स्वप्न सलोने, मन मंदिर बिन मनमोहन
भरभरा कर डह  ना जाता...

जकड़ी हुयी हवाएं कैसे देती ताजगी
सांसों को, कैसे खुलके बिखरते बोल
जोशीले, कैसे भावो के पंछी चहचहाते...
खिलने से पहले ही मुरझा जाता मन 
वसंत,कैसे मुखरित हो मन गाता...

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

पगली सांझ......

कोहरे के घुघट में छिप कर
सांझ सलोनी कहाँ चली
किस से छुपती फिरती है
जाना तुझको कौन गली

चाँद पिया से मिलना तेरा
बहुत कठिन है अलबेली
उसको कब तेरी परवाह है
उसकी तो रात सहेली


डूबा रहता हरदम उसमे
ओढ़े  तारों की चादर
तू नादान फिरे क्यूँ इत-उत
हो कर यूँ पगली,कातर

प्रेम तेरा कोई समझ न पाए
तू मीरा सी दीवानी
दर दर फिरती मारी मारी
ना अपनी न बेगानी.....



गुरुवार, 10 नवंबर 2011

कभी कभी जाने क्यूँ......

कभी कभी जाने क्यूँ
एक अजीब सी ख़ामोशी
फैल जाती है चारों ओर
सारा आलम यूँ लगता है,
जैसे सर्दियों की अलसुबह
कोहरे की चादर में लिपटा
उबासियाँ लेता सुस्त सबेरा.....
मन ही मन चलती है
सवालों की आँधी सी
लेकिन एक शब्द भी 
आकार नहीं ले पाता
कहना चाहती हूँ,बहुत कुछ
लेकिन,जाने क्यूँ आवाज़ 
कहीं ठहर सी जाती है.....
सन्नाटों के शोर में दबके
रह जाती है हर बात औ'
सांस घुटने लगती है
बैचैनी जीने नहीं देती,
लगता है की हर ओर बस 
एक उदास मंजर फैला है
जैसे सर्दियों की भीगी
शामें दम तोड़ती है.. खो जाती हैं
कोहरे की घनी चादर में...... 








बुधवार, 7 सितंबर 2011

कल्पनाये...............

पंख कहाँ से मिलते हैं
कल्पनाये कैसे उड़ती है
अक्सर सोचती हूँ बैठे-बैठे
जाने क्यूँ इनकी उड़ाने
इतनी बेलोस होती हैं

जाने कितने इन्द्रधनुष
पार ये कर जाती है
कितने ही पर्वतों को
कदमो पे ले आती हैं
बड़ी बेखोफ़ होती हैं

हजारों रूप धरती  हैं
कई नक़्शे बदलती है
कोई भी रोक ना पाए
कहाँ कब किसकी सुनती हैं
बड़ी मुहज़ोर होती हैं....

कभी बादल पे जा बैठें
कभी तैरें हवाओं में 
संभाले ये ना संभले
उड़ जाये फिजाओं में
बड़ी बेफिक्र होती है..

समंदर की गहराई 
या फलक की ऊँचाई
कहीं कुछ नहीं मुश्किल
जहाँ जी चाहे ये जाये
किसी के हाथ ना आये
बड़ी मदहोश होती हैं............



--
ASHA

मैं...

  खुद में मस्त हूँ,मलँग हूँ मैं मुझको बहुत पसंद हूँ बनावट से बहुत दूर हूँ सूफियाना सी तबियत है रेशम में ज्यूँ पैबंद हूँ... ये दिल मचलता है क...