शाम थोड़ी तनहा सी थी
अलसायी सी, चुपचाप
दिन भर धूप की तपिश से
झुलसी पांखे सहलाते पंछी
लौट रहे थे घरोंदों में अपने
आवारा फिरती गाय बैठ गयी
उस घने पीपल की छाँव में
जुगाली करती अपनी दिन
भर की थकान को उतारती
ज्यूँ पीपल से बतियाने लगी थी
मोड़ पे जमने लगी थी बैठक
गली के कुत्तों की, बहस जारी
मुद्दा फिर वही रोटी का
दफ़्तर से घर लौटते शर्मा जी
झुंझलाए से,शायद दिन अच्छा
नहीं गया होगा उनका...
तभी पड़ोस के रिकी की बॉल
टकरायी टिम्मी की खिड़की से
छनाक ! और अब सब गूंज उठा
सारा मोहल्ला जाग गया
शाम का सूनापन जैसे कहीं भाग गया
हमारे यहाँ ज़िंदगी के लिए
कोई ना कोई मसला ज़रूरी है.......(आशा)
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