क्यूँ रूठी हो, क्यूँ हो बिन बात ख़फ़ा
आख़िर मैंने क्या किया है बुरा
धूप ने पूछा शाम से एक दिन
वो ठुनक के बोली, आँख तरेर कर
क्यूँ ना रूठूँ तुझसे भला तू ही बता
मैं इतनी ख़ूबसूरत सिंदूरी बाला
सबको भाती हूँ, सहलाती हूँ
तेरी तपन से झुलसे तन मन
मेरे आग़ोश में सुख पाते हैं
तारीफ़ों में मेरी जाने कितनी
ग़ज़ल, शेर नग़मे बन जाते हैं...
तू इतनी तीखी,तेज़ तर्रार
या यूँ कहूँ के ख़ूँख़ार
थोड़ी देर में सब छांव ढूँढने को
मज़बूर हो ही जाते हैं और तू..
खिलखिलाती है और अपनी
चमकार बढाती चली जाती है
तू गरम हवाओं के साथ इठलाती
सूरज की शह ले के दुनिया
पे हुक्म चलाती, इतराती
हिटलर सी कोड़े चलाती ।।
और मैं आती हूँ जब भी
शीतल सौम्य सभ्य सुंदर
तुझसे कई गुना बेहतर
देख मुझे सब ख़ुश हो जाते हैं
लेकिन फिर भी जाने क्यूँ
सबको तू चाहिये हर रोज़
कितना ही कोसें चाहे तुझे
फिर भी रोज़ तेरा ही इंतज़ार
सूरज भी तो तुझे लिए फिरता
उसकी पहचान तुझसे ही क्यूँ
जब तू नहीं होती उसकी चमक
अधूरी सी क्यूँ दिखती है?
ना तू सुंदर मुझसी ना सुघड़
ना सुरीली ना मीठी मद्धम
जाने क्यूँ फिर भी सारी
कायनात तुझ पे फ़िदा?
क्यूँ सूरज तेरा साथी जीवन का
क्यूँ नहीं वो महबूब मेरा?
सुन के बात धूप मुस्कुरायी
बोली सबकी बात छोड़
ख़ुद तू भी मुझसे ही तो है
जब मैं ढलती हूँ हाथ पकड़
तुझे ले आती हूँ......
देके अपनी चमक थोड़ी
तेरा रूप सजाती हूँ
मुझे मिटा देगी तो सोच
तू भी तो मिट जाएगी
सूरज मेरा साथी जीवन का
मुझ बिन तू क्या उसे पा पाएगी?
सुन के बात धूप की शाम
सहमी,सूरज झुंझला गया
या यूँ कहें मुरझा सा गया..
ये देख शाम हो गयी सिंदूरी
रूठा सा सूरज हाथ थाम,
ले चला धूप को अपने घर
और शाम कुछ और धुँधली
हो के रात में बदल गयी
औंस के अश्क़ बहाती......(आशा)
आख़िर मैंने क्या किया है बुरा
धूप ने पूछा शाम से एक दिन
वो ठुनक के बोली, आँख तरेर कर
क्यूँ ना रूठूँ तुझसे भला तू ही बता
मैं इतनी ख़ूबसूरत सिंदूरी बाला
सबको भाती हूँ, सहलाती हूँ
तेरी तपन से झुलसे तन मन
मेरे आग़ोश में सुख पाते हैं
तारीफ़ों में मेरी जाने कितनी
ग़ज़ल, शेर नग़मे बन जाते हैं...
तू इतनी तीखी,तेज़ तर्रार
या यूँ कहूँ के ख़ूँख़ार
थोड़ी देर में सब छांव ढूँढने को
मज़बूर हो ही जाते हैं और तू..
खिलखिलाती है और अपनी
चमकार बढाती चली जाती है
तू गरम हवाओं के साथ इठलाती
सूरज की शह ले के दुनिया
पे हुक्म चलाती, इतराती
हिटलर सी कोड़े चलाती ।।
और मैं आती हूँ जब भी
शीतल सौम्य सभ्य सुंदर
तुझसे कई गुना बेहतर
देख मुझे सब ख़ुश हो जाते हैं
लेकिन फिर भी जाने क्यूँ
सबको तू चाहिये हर रोज़
कितना ही कोसें चाहे तुझे
फिर भी रोज़ तेरा ही इंतज़ार
सूरज भी तो तुझे लिए फिरता
उसकी पहचान तुझसे ही क्यूँ
जब तू नहीं होती उसकी चमक
अधूरी सी क्यूँ दिखती है?
ना तू सुंदर मुझसी ना सुघड़
ना सुरीली ना मीठी मद्धम
जाने क्यूँ फिर भी सारी
कायनात तुझ पे फ़िदा?
क्यूँ सूरज तेरा साथी जीवन का
क्यूँ नहीं वो महबूब मेरा?
सुन के बात धूप मुस्कुरायी
बोली सबकी बात छोड़
ख़ुद तू भी मुझसे ही तो है
जब मैं ढलती हूँ हाथ पकड़
तुझे ले आती हूँ......
देके अपनी चमक थोड़ी
तेरा रूप सजाती हूँ
मुझे मिटा देगी तो सोच
तू भी तो मिट जाएगी
सूरज मेरा साथी जीवन का
मुझ बिन तू क्या उसे पा पाएगी?
सुन के बात धूप की शाम
सहमी,सूरज झुंझला गया
या यूँ कहें मुरझा सा गया..
ये देख शाम हो गयी सिंदूरी
रूठा सा सूरज हाथ थाम,
ले चला धूप को अपने घर
और शाम कुछ और धुँधली
हो के रात में बदल गयी
औंस के अश्क़ बहाती......(आशा)
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