सोमवार, 30 जनवरी 2012

सरहदें.......




सोचों की सरहदें होती तो कैसा होता....
कैसे उड़ती उन्मुक्त हो कल्पनाएँ
बन्धनों में कैसे फूटते गीत सतरंगी
मन के आकाश का सुनहला इंद्रधनुष
टूट कर गिर ना जाता....

कुम्हला कर रह जाती मन की कमलिनी
इच्छाओं के भंवर कहाँ गुंजारते
स्वप्निल आँखे क्यूँकर देख पाती
स्वप्न सलोने, मन मंदिर बिन मनमोहन
भरभरा कर डह  ना जाता...

जकड़ी हुयी हवाएं कैसे देती ताजगी
सांसों को, कैसे खुलके बिखरते बोल
जोशीले, कैसे भावो के पंछी चहचहाते...
खिलने से पहले ही मुरझा जाता मन 
वसंत,कैसे मुखरित हो मन गाता...

मैं...

  खुद में मस्त हूँ,मलँग हूँ मैं मुझको बहुत पसंद हूँ बनावट से बहुत दूर हूँ सूफियाना सी तबियत है रेशम में ज्यूँ पैबंद हूँ... ये दिल मचलता है क...