मेरी बिटिया ......


बरसों पहले जीवन में

सूनापन आहें भर रहा था..
सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं था
ये अहसास ह्रदय में भर रहा था….
कुछ कमी सी लगती थी जीवन में
मौन था, शांति थी,
एककीपन राज कर रहा था
फिर इक दिन ऐसा भी आया
जब प्रकृति पूर्ण योवन पर थी
वर्षा की रिम झिम छम छम थी
बूंदों में जैसे सरगम थी ..
सब और था जैसे कोलाहल
सब को जैसे विश्रांति थी

इक स्वप्न घुमड़ने लगा नयन में
ह्रदय प्रफुल्लित हुआ अचानक
पीडा की गहरी नदिया से
कमल कली उग आई थी
स्वप्नों का साकार रूप बन
जीवन में विभूति आई थी..

तब से न अब तक पता चला
क्या हुआ और कब कहाँ हुआ
उसकी किलकारी में खोई
मौन शांति तो हुयी स्वाहा..
उसकी मुस्कानों और बातों में
भूल गयी सारे जग को
बस याद रही केवल विभूति
बिसर गयी मै सब को..

समय उड़ गया पंख लगा
अब कंधे तक मेरे आती है
जब उलझ कहीं मै जाती हूँ
वो मुझ को अब समझाती है
माँ मै हूँ उसकी लेकिन
वो मेरी माँ बन जाती है..