मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

निर्दोष सिया

सिंघासन पर बैठी सीता
सोच रही थी ध्यान लगा
मन शांत सलिल सा शीतल
हर सांस मेरी कितनी निश्छल
हर द्वन्द छोड़ आई वन में
कोई दुविधा अब नहीं मन में 
मेरी सारी तपश्चर्या का
कितना अद्भुद फल आया है
राम मिले,जीवन बदला,
ईश्वर को प्रियतम पाया है।

जीवन की अनगढ़ राहों में
थाम पिया का हाथ चली
कितनी भयावह रही नियति,
स्वधर्म से मै कभी न डिगी।
राम रहे हर पल मन में
पतिव्रत  धर्म निभाया है..
उनका अनुपम रूप सदा
बन प्राण मुझमे समाया है..

यह देख हंसी क्रूर नियति
सीता तू भूमि की बेटी
बन रानी करले राज अभी
छूटेंगे तख्तो-ताज सभी
अग्नि-परीक्षा दे कर भी
अतीत न तेरा जल पाया है
नगर जनों को सीता का 
चरित्र समझ नहीं आया है।

राम तुम भी बस पुरुष रहे
सीता ने कितने कष्ट सहे
रखने को पति की मर्यादा
वन का हर कष्ट उठाया है
हंस कर सही सारी विपदाएं 
कब तुमको दोष लगाया है..?

तुम लोक-लाज के मारे 
राजा हो,या पति बेचारे
मर्यादा-पुरुषोतम हो कर भी
पति की मर्यादा से हारे , 
निर्दोष सिया को वन भेजा,
बोलो कौन सा धर्म निभाया है,
जिसने जीवन तुमको माना
तुमको ही ईश्वर जाना,
त्यागा उसको किस कारन 
क्यूँ मिथ्या आरोप लगाया है....!!!




2 टिप्‍पणियां:

  1. ये सभी सवाल मन में उठते हैं बार बार, जवाब एक साधारण पुरुष भी अपने मन माकिफ देकर ये कहता कि राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनना था अतः ऐसा किया. फिर भी स्त्री का ये सवाल अनुत्तरित है कि आखिर ऐसा क्यों? सिया के साथ ऐसा करके कौन सी मर्यादा दिखाई? बहुत अच्छी रचना, शब्द-संयोजन भी बहुत सुन्दर...

    निर्दोष सिया को वन भेजा,
    बोलो कौन सा धर्म निभाया है,
    जिसने जीवन तुमको माना
    तुमको ही ईश्वर जाना,
    त्यागा उसको किस कारन
    क्यूँ मिथ्या आरोप लगाया है....!!!

    शुभकामनाएँ.

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  2. दीदी बहुत आभार इस रचना को आपने सार्थक विचार देने के लिए... ये सारे प्रश्न अक्सर मन को मथते हैं...पर सच है सदैव अनुत्तरित ही रहे है...

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