मंगलवार, 5 सितंबर 2017

शीत निंद्रा...


खुद को छुपा के खोल में
घोंघे की मानिंद बैठ गयी
समेत लिया सब कुछ
अच्छा बुरा खरा खोटा
और एक अजीब सी
ख़ामोशी को ओढ़ लिया
जैसे अक्सर कई जीव
चले जाते हैं शीत निंद्रा में....
और अनजानी अनसुनी
एक भ्रम की दुनिया बना ली
सबको समझाने भी लगी
भुलावा दिया दिलको
ऐसी ही हूँ मैं "क्रिएटिव ".....
एक दिन यूँ ही अचानक
सरका के दूर कर दी
हाथों की कलम,किताब
और बांध ली आँखों पर
रेशमी पट्टी गांधारी सी
और मान लिया के बस
अब यही सच है मेरा
पर ये सच नहीं था....
भीतर ही भीतर ख़ुद
मैं भी जानती थी के
झूठ है ये,केवल छलावा
पर खुद को ही बहला रही थी
या फिर क़त्ल कर रही
अपनी संवेदनाओं का
ये घुटन बढती ही जा रही थी....
फिर बारिश हुयी
भीगती रही पहरों उसमे
और फिर सूरज दमका
हाथ पकड़ कर खींच लिया
एक भूली सी नज़्म ने
अब पट्टी उतार कर
देख रहीं है आँखे नया सवेरा
लौट आयी हूँ फिर उन्हीं
ख्वाबों की दुनिया में
कलम भी खुश,किताब भी और मैं भी(आशा)



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