इम्तिहान वक़्त के हज़ार,
हज़ार सितम दुनिया के,
फिर भी टूटती नहीं,
जाने किस मिट्टी से बनी है ।
कोशिशें लाख की समझाने की,
समझती ही नहीं,
जाने क्यूँ इतनी ढीठ,
इतनी ज़िद्दी, के फिर भी तनी है।
चाहती क्या है आख़िर,
कुछ समझ नहीं आता,
रस्सियाँ जल गयी
लेकिन बल नहीं जाता,
आज़माती है रोज़
क़िस्मत को नए तरीक़े से,
नासमझ है,
जाने कब समझेगी दुनियादारी!!! (आशा)
हज़ार सितम दुनिया के,
फिर भी टूटती नहीं,
जाने किस मिट्टी से बनी है ।
कोशिशें लाख की समझाने की,
समझती ही नहीं,
जाने क्यूँ इतनी ढीठ,
इतनी ज़िद्दी, के फिर भी तनी है।
चाहती क्या है आख़िर,
कुछ समझ नहीं आता,
रस्सियाँ जल गयी
लेकिन बल नहीं जाता,
आज़माती है रोज़
क़िस्मत को नए तरीक़े से,
नासमझ है,
जाने कब समझेगी दुनियादारी!!! (आशा)
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