वृक्ष तुम ऐसे क्यूँ हो? बोलो ना,
जैसे समाधिस्त कोई जोगी
झूमता भक्ति के रस में
या फिर कोई भोगी
लहकता रहता मद में
अपनी ही धुन में रहते हो
कोई सींचे तुम्हे प्यार से
तुम निस्पृह खड़े रहते हो
मार के पत्थर कोई राह में
तोड़ डाले फल तुम्हारे
उसको भी कहाँ कुछ कहते हो
काट डाले शाखे तुम्हारी
छिन्न -भिन्न कर दे
ख़ाल तुम्हारी नोच ले
तुम को जख्म दे
चुप चाप सहे जाते हो
कोई विरोध,जरा सा भी क्रोध
क्यूँ नहीं आता तुम्हे
बेपरवाह खड़े रहते हो
काट दे गर तन को तुम्हारे
फिर से क्यूँ उग आते हो
देने को इन नाशुक्रो को
फिर से फल, औषधि,छाया
जाने क्या है तुम्हारे दिल में
अब तक समझ न आया
क्यूँ इतना परोपकार करते रहते हो
सुनो वृक्ष ये जग बड़ा स्वार्थी
नहीं समझेगा तुम्हारा प्रेम
तुम्हारी भावना,व्रत और नेम
सुनो थोड़े से स्वार्थी हो जाओ
वरना ये सब मिल कर
अस्तित्व तुम्हारा मिटा देंगे
भूल जायेंगे तुम्हारे उपकार
तुम्हे जड़ से ही मिटा देंगे
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मैं...
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झूठ को सच,सच को झूठ बना दे खुली आँखों को नया ख़्वाब दिखा दे भूल जाए गुस्ताखियाँ,ज्यूँ हुई ही ना हों ऐ ख़ुदा इतना बेग़ैरत, बेज़ार बना दे ज़िस...
आशा जी बहुत ही उम्दा , बहुत ही शानदार
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया और उद्देश्यपरक कविता ...
आभार ....