रविवार, 5 सितंबर 2010
तुम से मिलाना नहीं चाहती हूँ………
तुम से मिलाना नहीं चाहती हूँ
जानती हूँ ये सुनते ही रूठ जाओगे
नज़र चुरा के मुह फेर लोगे चुपचाप
भीतर ही भीतर कहीं टूट जाओगे
सुनो,जानते क्यूँ नहीं मिलना चाहती?
मेरी इस जिद का कारण भी तुम ही हो
तुम से मिलूंगी तो खुद को रोक नहीं पाऊँगी
और दुनियादारी की रिवायते भी तो तोड़ नहीं पाऊँगी
लाख छुपाऊ अपनी बेकरारी, दुनिया वालों से
इन मुई आँखों को कैसे समझाउंगी
दिल की धड़कन अगर छुपा भी लूँ
इन आँखों को कहाँ छुपाउंगी
और तुम भी तो बेकरारी का दरिया हो क्या रोक पाओगे
अपने बेलोस जज़बातों की बाड़ को आने से
जानती हूँ अच्छे से की रोक नहीं पाओगे
खुद को भी रुसवा करोगे,और मुझ को भी बदनाम करके जाओगे
इसीलिए फिर से कहती हूँ मिलने की जिद न करो
तुम से मिलाना नहीं चाहती हूँ………
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मैं...
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हमारे विचार से तो एक बार मिल लेना ठीक रहेगा ।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता !
सुंदर अतिसुन्दर बधाई
जवाब देंहटाएंvivekji, sunilji aapka bahut abhar
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