थक गयी हूँ देते हुए अग्निपरीक्षा
त्रेता से कलयुग आगया
राम बदले रावण बदले
परिस्थितियां बदली
बदले मेरे कर्तव्य,अधिकार
समय कि सान पर तेज हो गयी
तीखी रस्मो कि तलवार
पर अगर नहीं बदली कोई
तो वो है मेरी नियति
आज भी मेरी पवित्रता
क्यूँ मोहताज़ है अग्नि परीक्षा की
क्या कभी परखा है तुमने
मेरे ह्रदय की निर्मलता को
क्यूँ मेरे संस्कारो की उज्वलता
नहीं देख पाती आँखे तुम्हारी
मेरे ह्रदय में हरदम लहलहाता
स्नेह का दरिया,क्यूँ नहीं दिखता
क्या उसकी बुँदे कभी नहीं भिगोती
जब भी कभी संकट आया तुम पर
सदैव ढाल बन खड़ी हुयी हूँ
लेकिन जब मेरी बारी आती है
लेके आवरण रीति रिवाजों का
समाज की मर्यादा की देके दुहाई
मजबूर किया देने को अग्नि परिक्षा..............
न जाने कब तक यूँ ही नारी अग्नि परीक्षा देती रहेगी ..सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंसमाज की मर्यादा की देके दुहाई
जवाब देंहटाएंमजबूर किया देने को अग्नि परिक्षा..
दिल को छूती है यह पंक्तियाँ सुंदर रचना बधाई
अग्नि परीक्षा तो नारी को ही देनी होती है ...
जवाब देंहटाएंयुग बदलने पर भी !
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