किस अपराध का हूँ दंड पाती
प्रिय तुम कहते यदि स्नेह से
बिन मिले तुम वन गये औ
मै खड़ी थी ले दीप बाती
मदन मेरा शत्रु चिर का
आगया ले वसंत फिर से
पुष्प वन फिरसे खिले है
भवंर का झंकार फिरसे
विरह अग्नि दग्ध ह्रदय
चैन पाए भी तो कैसे
अगणित ऋतू आई गयी
मौन द्वार पर मै खड़ी हूँ
वे कर्मपथ पर चल रहे है
धर्मपथ पर मै खड़ी हूँ
नियति का खेल देखती हूँ
विरह अग्नि में जल रही हूँ
इतिहास भी तो मौन मुझ पर
कब कदर जानी किसी ने
वन तो मै संग जा ना पाई
कब बात मानी किसी ने
सब ठाठ-बाट इस महल के
क्यूँकर मुझे अब रास आयें
प्रिय वहां हो कष्ट में जब
क्यूँकर प्रिया फिर चैन पाए
धर्म अपना तुम निभाओ
मौन तप मै कर रही हूँ
लखन संग है राम के
bahut khoobsurat lines aur mann ki stithi ka sundar chitran ek sath.
जवाब देंहटाएंBahut khoob