कभी कभी जाने क्यूँ
एक अजीब सी ख़ामोशी
फैल जाती है चारों ओर
सारा आलम यूँ लगता है,
जैसे सर्दियों की अलसुबह
कोहरे की चादर में लिपटा
उबासियाँ लेता सुस्त सबेरा.....
मन ही मन चलती है
सवालों की आँधी सी
लेकिन एक शब्द भी
आकार नहीं ले पाता
कहना चाहती हूँ,बहुत कुछ
लेकिन,जाने क्यूँ आवाज़
कहीं ठहर सी जाती है.....
सन्नाटों के शोर में दबके
रह जाती है हर बात औ'
सांस घुटने लगती है
बैचैनी जीने नहीं देती,
लगता है की हर ओर बस
एक उदास मंजर फैला है
जैसे सर्दियों की भीगी
शामें दम तोड़ती है.. खो जाती हैं
कोहरे की घनी चादर में......
एक अजीब सी ख़ामोशी
फैल जाती है चारों ओर
सारा आलम यूँ लगता है,
जैसे सर्दियों की अलसुबह
कोहरे की चादर में लिपटा
उबासियाँ लेता सुस्त सबेरा.....
मन ही मन चलती है
सवालों की आँधी सी
लेकिन एक शब्द भी
आकार नहीं ले पाता
कहना चाहती हूँ,बहुत कुछ
लेकिन,जाने क्यूँ आवाज़
कहीं ठहर सी जाती है.....
सन्नाटों के शोर में दबके
रह जाती है हर बात औ'
सांस घुटने लगती है
बैचैनी जीने नहीं देती,
लगता है की हर ओर बस
एक उदास मंजर फैला है
जैसे सर्दियों की भीगी
शामें दम तोड़ती है.. खो जाती हैं
कोहरे की घनी चादर में......
बहुत उम्दा!!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें !
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति
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