शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

मै एक इमारत.........

मै एक इमारत ना नयी,ना बहुत पुरानी
निस्पंद खड़ी हूँ निबड़ अकेले निर्जन में,

अपने वजूद को तलाशती सी,

खुद को ही कब से पुकारती सी…

अपनी नींव से गहरे जुडी हूँ मै,

या यूँ कह लो बन्धनों में पड़ी हूँ मै..

न कही आ-जा सकती हूँ,न चाहती हूँ

अपने में ही गुम खुद को तलाशती हूँ.

आते जाते हुए लोगों को देखा करती हूँ

हर दिन नए सपने तराशती हूँ..

रोज ख़त्म हो रही है मियाद मेरी

सुनता नहीं कोई फरियाद मेरी..

अपने को ही किसी तरह संभालती हुयी

गुजरे वक़्त को यादों के आईने में निहारती हुयी

खड़ी हूँ जाने कब से तनहा,अलसाई सी,उकताई सी

वक़्त की हर अदा को देखती और सराहती हुयी..

जो थे वाशिंदे मेरे,बहुत ही प्यारे थे,

मै उनकी पसंद थी या….., जानती नहीं

पर वो सारे ही मेरे दुलारे थे.

छोड़ गये जाने क्यूँ मुझ को सभी

क्या बेवफा वो सारे थे??????

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