सोमवार, 30 जनवरी 2012

सरहदें.......




सोचों की सरहदें होती तो कैसा होता....
कैसे उड़ती उन्मुक्त हो कल्पनाएँ
बन्धनों में कैसे फूटते गीत सतरंगी
मन के आकाश का सुनहला इंद्रधनुष
टूट कर गिर ना जाता....

कुम्हला कर रह जाती मन की कमलिनी
इच्छाओं के भंवर कहाँ गुंजारते
स्वप्निल आँखे क्यूँकर देख पाती
स्वप्न सलोने, मन मंदिर बिन मनमोहन
भरभरा कर डह  ना जाता...

जकड़ी हुयी हवाएं कैसे देती ताजगी
सांसों को, कैसे खुलके बिखरते बोल
जोशीले, कैसे भावो के पंछी चहचहाते...
खिलने से पहले ही मुरझा जाता मन 
वसंत,कैसे मुखरित हो मन गाता...

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

पगली सांझ......

कोहरे के घुघट में छिप कर
सांझ सलोनी कहाँ चली
किस से छुपती फिरती है
जाना तुझको कौन गली

चाँद पिया से मिलना तेरा
बहुत कठिन है अलबेली
उसको कब तेरी परवाह है
उसकी तो रात सहेली


डूबा रहता हरदम उसमे
ओढ़े  तारों की चादर
तू नादान फिरे क्यूँ इत-उत
हो कर यूँ पगली,कातर

प्रेम तेरा कोई समझ न पाए
तू मीरा सी दीवानी
दर दर फिरती मारी मारी
ना अपनी न बेगानी.....



गुरुवार, 10 नवंबर 2011

कभी कभी जाने क्यूँ......

कभी कभी जाने क्यूँ
एक अजीब सी ख़ामोशी
फैल जाती है चारों ओर
सारा आलम यूँ लगता है,
जैसे सर्दियों की अलसुबह
कोहरे की चादर में लिपटा
उबासियाँ लेता सुस्त सबेरा.....
मन ही मन चलती है
सवालों की आँधी सी
लेकिन एक शब्द भी 
आकार नहीं ले पाता
कहना चाहती हूँ,बहुत कुछ
लेकिन,जाने क्यूँ आवाज़ 
कहीं ठहर सी जाती है.....
सन्नाटों के शोर में दबके
रह जाती है हर बात औ'
सांस घुटने लगती है
बैचैनी जीने नहीं देती,
लगता है की हर ओर बस 
एक उदास मंजर फैला है
जैसे सर्दियों की भीगी
शामें दम तोड़ती है.. खो जाती हैं
कोहरे की घनी चादर में...... 








बुधवार, 7 सितंबर 2011

कल्पनाये...............

पंख कहाँ से मिलते हैं
कल्पनाये कैसे उड़ती है
अक्सर सोचती हूँ बैठे-बैठे
जाने क्यूँ इनकी उड़ाने
इतनी बेलोस होती हैं

जाने कितने इन्द्रधनुष
पार ये कर जाती है
कितने ही पर्वतों को
कदमो पे ले आती हैं
बड़ी बेखोफ़ होती हैं

हजारों रूप धरती  हैं
कई नक़्शे बदलती है
कोई भी रोक ना पाए
कहाँ कब किसकी सुनती हैं
बड़ी मुहज़ोर होती हैं....

कभी बादल पे जा बैठें
कभी तैरें हवाओं में 
संभाले ये ना संभले
उड़ जाये फिजाओं में
बड़ी बेफिक्र होती है..

समंदर की गहराई 
या फलक की ऊँचाई
कहीं कुछ नहीं मुश्किल
जहाँ जी चाहे ये जाये
किसी के हाथ ना आये
बड़ी मदहोश होती हैं............



--
ASHA

रविवार, 4 सितंबर 2011

जब तुम पास नहीं होते.....


सुनो,जब तुम पास नहीं होते
तब भी मेरे साथ ही होते हो

जैसे असमान के आगोश में
चाँद हमेशा कायम है,फिर
चाहे रोज़ दिखे न दिखे.....

हर वक़्त महसूस करती हूँ

जबअँधेरे घेरने लगते हैं,
सन्नाटे डराने लगते हैं
सूनापन डसता है नाग बनके
उसी वक्त याद तुम्हारी
तुम्हे पास मेरे ले आती है
और जगमगा जाता है
तेरे नूर से मेरा वजूद...


जब तुम पास नहीं होते
मेरी अमावस होती है,औ'
जब भी होती है अमावस
रात की गाढ़ी स्याही फैलती है
सारे आलम को आगोश में ले
अँधेरे के चाबुक चलाती है,
अपना साया भी तब पास
नहीं होता,बेगाना माहौल
जी कितना घबराता है,क्यूंकि
अमावस में चाँद नहीं दिखता

चाँद चाहे गुम हो अंधेरों में
तब भी उसका वजूद होता है...
चांदनी चाहे ना बिखेर पाए
तब भी वो वहीँ,मौजूद होता है....
ठीक उसी तरह जैसे तुम
पास हो या ना हो,शामिल होते हो,
मेरी हर साँस में बनके ख़ुश्बू
नस नस में बहता है लहू के संग
अहसास तुम्हारी मौजूदगी का
और फिर वो बेबस तन्हाई
अपना सा मुँह लेके रह जाती है...........................तन्हा,अकेली..


शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

मेरा हर दिन.....

नित नए संकल्प लिए
उगता है मेरा हर दिन
और ह्रदय में उमड़ते
नित नए बवंडर
विचारों की बरसात में
भीगती,खयाली पुलाव
पकाती,खुद ही मुस्कुराती
जाने कितने स्वप्न बुनती हूँ
कुछ खुशियों के महकते फूल,
थोड़े आंसू,थोड़े गम के कांटे
सारा दिन पलकों से चुनती हूँ
भागती फिरती हूँ,अनजानी सी 
अनकही बाते जाने कैसे सुनती हूँ
लोग कहते है,तुम पगली हो
मान लेती हूँ चुपसे,औ 
इस तरह पल-पल सरकता है
मन मेरा रेत सा दरकता है
अनबुझ पहेली सी मैं दिखती हूँ
बीत जाती है मेरी हर साँझ
यूँ ही आहिस्ता -आहिस्ता
फिरसे कल दिन उगेगा मेरा
लिए नए सकल्प,नए बवंडर........

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

मौन....

अभिव्यक्त कर देना स्वयं को 
कब इतना सरल हुआ है....
फिर इतना रुचिकर भी तो नहीं है
ये विषय....इसलिए 
मौन ही श्रेयकर साधन है
स्वयं की अभिव्यक्ति का
तुमसे स्नेह करने वाले 
मौन को पढ़ लेंगे खुद ही
और बाकि बिना कोई अपवाद
चुपचाप आगे निकल जायेंगे....

--
ASHA

मैं...

  खुद में मस्त हूँ,मलँग हूँ मैं मुझको बहुत पसंद हूँ बनावट से बहुत दूर हूँ सूफियाना सी तबियत है रेशम में ज्यूँ पैबंद हूँ... ये दिल मचलता है क...